राहुल गांधी और स्मृति ईरानी की शिक्षा का मुद्दा आपस में बहुत टकराता है।
नौकरी में भले ही आपकी पढ़ाई मायने रखती है, लेकिन राजनीति में प्रगति करने के लिए सर्टिफकेट नहीं काबिलियत मायने रखती है। और ये मायने रखता है कि आपमें कितना दम है, और वही करियर का टर्निंग प्वाइंट होता है।
बात करते हैं राहुल गांधी और स्मृति ईरानी के बारे में फिर उठे शिक्षा विवाद की। इनके बारे में सबसे पहले यह बता दें कि साल 2003 में स्मृति ईरानी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। और उनसे एक साल बाद यानी साल 2004 में राहुल गांधी भी पूरी तरह से राजनीति में आए थे। यानि दोनों के पास राजनीतिक अनुभव लगभग बराबर है और आज ये दोनों एक ही सीट अमेठी से दुबारा मुकाबला भी कर रहे हैं।
याद रखें कि वर्तमान में राहुल कांग्रेस के प्रेसिडेंट हैं और स्मृति ईरानी केंद्रीय मंत्री।
यहां पर राजनीति का नहीं लेकिन शिक्षा के में ये दोनों महारथी एक दूसरे से कितने बेहतर हैं आज ये जानने का प्रयास करते हैं। 
और शुरुआत स्मृति ईरानी से ही करते हैं। 2019 के अपने शपथ पत्र में दी गई जानकारी के अनुसार स्मृति ईरानी ने 1991 में सी.बी.एस.ई.बोर्ड के होली चाइल्ड आक्सूलियम स्कूल दिल्ली से हाई स्कूल किया है और यहीं से 1993 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उतीर्ण की है। उन्होंने वर्ष 1994 में दिल्ली यूनिवर्सिटी से संबद्ध स्कूल आफ ओपन लर्निंग (पत्राचार) से बीकाम प्रथम वर्ष तक की पढ़ाई का जिक्र किया है।
यानी 2019 में स्मृति ईरानी ने ये माना है कि वो ग्रेजुएट नहीं है।
याद दिला दें कि जब स्मृति ईरानी 2004 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली के चांदनी चैक से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार थीं। उस वक्त उनके हलफनामे में लिखा था कि उन्होंने 1996 में दिल्ली विश्विद्यालय से पत्राचार माध्यम से बीए किया है।
बार-बार उलझनों के हालात इसलिये बनते हैं क्योंकि अपनी शिक्षा को लेकर हर हलफनामें में स्मृति ईरानी ने अलग जानकारी दी।
इसके अलावा 2014 चुनाव में दाखिल किए गए हलफनामे में उन्होंने लिखा कि उन्होंने 1994 में दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्राचार से बीकाम के पहले साल की पढ़ाई की है। आखिरकार इस बार उन्होंने इस बहस को विराम देते हुए ये मान लिया कि वो सिर्फ 12वीं पास हैं, ग्रैजुएट नहीं हैं।
अब बात कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की। वे एक राजनीतिक घराने से आते हैं, और नेहरू-गांधी परिवार की चैथी पीढ़ी हैं।
जानकारी के अनुसार राहुल गांधी की प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली के माडर्न स्कूल से हुई। इसके बाद उन्हें देहरादून के दून स्कूल भेज दिया गया। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या होने के बाद राहुल को सुरक्षा कारणों के चलते देहरादून से वापस दिल्ली बुला लिया गया और उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई घर से ही की। मतलब की सुरक्षा कारणों से उनको पढ़ाई बीच बीच में छोड़ती रहनी पड़ी।
1989 में राहुल ने दिल्ली के कालेज में दाखिला लिया और सुरक्षा कारणों के चलते उन्हें यहां भी पढ़ाई छोड़नी पड़ी, फिर वो अमेरिका चले गए जहां उन्होंने हावर्ड यूनीवर्सिटी में एडमिशन लिया। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद उन्हें ये भी छोड़ना पड़ा। 1991 से 1994 तक उन्होंने फ्लोरिडा के रोलिंस कालेज में आर्ट्स से ग्रेजुएशन पास की और 1995 में कैंम्ब्रिज यूनीवर्सिटी के ट्रिनिटी कालेज से एमफिल किया। बताया जाता है कि इन दोनों जगहों पर सुरक्षा कारणों से उनका नाम बदला गया था।
मार्च 2004 में उनकी राजनीति में एंट्री हुई और मई 2004 में अपने पिता राजीव गंधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीते भी।
माना कि राहुल गांधी के राजनीतिक जीवन में उनकी पढ़ाई-लिखाई या काबिलियत कोई मायने नहीं रखती और न ही उन्हें इस पद पर पहुंचने के लिए खुद को साबित करने की जरूरत पड़ी। भले ही सेंट स्टीफन कालेज के प्रिंसिपल रहे वाल्सन थंपू ने कहा हो कि राहुल गांधी राजनीति के लिए नहीं बने हैं, फिर भी राहुल गांधी आज कांग्रेस के अध्यक्ष हैं।
यहां पर यह बता दें कि स्मृति ईरानी पर ये आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने अपने हलफनामे में गलत जानकारी दी। तो वही राहुल गांधी के साथ भी यही हो रहा है। राहुल गांधी के हलफनामे में भी झोल नजर आता है जिसपर सोशल मीडिया में बहस हो रही है।
राहुल गांधी ने 2004 और 2009 में बताया था कि उन्होंने ट्रिनिटी कालेज से डेवलपमेंट इकानोमिक्स में एम.फिल. किया है, जबकि 2014 में कहा कि एम.फिल. डेवलपमेंट स्टडीज में किया गया है।
राहुल गांधी पर आरोप है कि उनकी एमफिल की डिग्री झूठी है। बिना पोस्ट ग्रैजुएशन किए उन्हें एमफिल की डिग्री कैसे मिल गई।
यानी अगर हलफनामे में गड़बड़ी की बात की जाए तो दोनों यहां बराबरी पर हैं। दोनों की दी हुई जानकारी में गड़बड़ी हैं।
जैसा पहले बता चुके हैं कि राजनीतिक अनुभव में राहुल गांधी भले ही स्मृति ईरानी से थोड़े कम हों लेकिन पढ़ाई लिखाई की बात करें तो राहुल गांधी के पास स्मृति ईरानी से ज्यादा डिग्रियां दिखाई देती हैं।
लेकिन जैसा कि हमने पहले यह भी कहा है कि राजनीति में पढ़ाई-लिखाई मायने नहीं रखती, इसलिए ये आरोप भी सिवाय चुनावी हल्ले से ज्यादा कुछ नहीं लगते। और इस बार भी चुनाव निपटते ही इस जिन्न को फिर बोतल में बंद कर दिया जायेगा। और हम और आप भी इस पर इतनी लंबी चर्चा करके दुबारा शांत होकर बैठ जायेंगे अगले चुनाव के इंतजार में।
आखिर में केवल इतना ही कि क्या जनता का काम केवल चर्चा करना और चुनना इतना ही है ?
या चर्चा के मुद्दे वो बनें जिनसे कुछ सार्थक निकल कर सामने आ सके।
संकलनः- कमलेश भट्ट
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