हरिद्वार लोकसभा में विवाद उठते ही रहते हैं। लेकिन हाल ही में लोकसभा चुनावों की घोषणा होते ही पहले टिकट लेने पर, बाद में चुनाव लड़ने पर स्थानिय बाहरी के विवाद को फिर से हवा दी गई। इसमें मजेदारी वाली बात यह है कि नेता लोग अपने निजी स्वार्थ लाभ के लिये हमेशा की तरह इसे भी जनता की मांग कहते हैं। फिर चाहे वो किसी भी दल के हों।
इस बात की शुरूवात एक शेर से करते हैं जो इन हालातों पर याद आ रहा है कि
यूं ही अपनन लफ्जो में जिक्र करते रहे वो बार-बार,
हम सुन के उन्हे मुस्कराते रहे,
आज खुदा से एक हसीन दिन की मोहलत मांग कर
हम भी हाल ए दिल उनको सुनायेंगे !
तो इस विषय पर अब आपके सामने ला रहे हैं एक एैसा पहलू जिस पर बात करने से स्थानिय बाहरी पर भी विराम लग सकेगा। और डा. रमेश पोखरियाल निशंक और हरिद्वार का रिश्ता कैसा है यह भी साफ हो सकेेगा।
बात करते हैं उत्तराखंड राज्य निर्माण के समय की उत्तर प्रदेश विधानसभा से तीन बार पारित प्रस्ताव में हालांकि हरिद्वार को लेकर स्थिति स्पष्ट नही थी, लेकिन उस समय के सभी विधायक इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि हरिद्वार को लेकर कोई बाधा नही है। इस पर उस समय वरिष्ठ भाजपा नेता स्व. अटल बिहारी बाजपेयी एवं लाल कृष्ण आडवाणी भी हरिद्वार को उत्तराखण्ड में रखने के प्रबल समर्थक थे। जिसके लिये बार-बार केन्द्र के चक्कर लगा रहे यहां के विधायकों को हरिद्वार में गुप्त हस्ताक्षर अभियान भी चलाना पडा था। वहीं दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी तथा समाजवादी पार्टी ने तो पूरी तरह से ऐलान कर दिया था कि वह किसी भी कीमत पर हरिद्वार तथा उधमसिंह नगर को उत्तराखंड में शामिल नही होने देंगे।
बता दें कि उस समय हरिद्वार में समाजवादी पार्टी के विधायक थे और वे भी हरिद्वार को किसी भी सूरत में उत्तराखंड का हिस्सा बनने से रोकने के लिए आखिरी ताकत तक झोंकने में लगे रहे। यही नही जब भी पृथक उत्तराखंड के विधेयक पर चर्चा की बात आयी तो समाजवादी विधायक पुरजोर विरोध करते नजर आये थे।
उस समय स्थानीय स्तर पर समाजवादी पार्टी और बसपा ने इस बात को पुख्ता तौर पर कई बार कहा था कि नये राज्य में अल्प संख्यकों का हित सुरक्षित नही होगा। उनके साथ दोहरी नागरिकता जैंसा सलूक किया जाएगा और यहां तक कि सूर्य अस्त पहाडी मस्त वाली कहावत दोहराते हुये कहते रहे कि हद्विार को पहाड़ी निगल जाएंगे।
आपकेा याद दिला दें कि 29 अगस्त 98 को हरिद्वार को उत्तराखंड में मिलाने के विरोध में सपा नेताओं के आहूत हरिद्वार बंद में जब स्थानीय लोगों की भागेदारी न के बराबर रही थी और बाहरी लोगों को आंदोलन का हिस्सा बनाया गया तो इससे स्थानीय सपा नेता बेनकाब भी हो गये थे। और इसका लाभ पहाड के विधायकों को अपनी बात केन्द्र में मजबूती से रखने में कामयाबी मिली कि सपा की मुहिम बेअसर है और हरिद्वार की जनता का उसे कोई समर्थन नही है। यहां यह बताना जरूरी है कि जनता का तो आज भी इस बात पर कोई समर्थन नहीं है।
अब आपको बताते हैं डा. निशंक की भूमिका के बारे में वे उस समय उत्तर प्रदेश में पर्वतीय विकास मंत्रालय की बागडोर संभाल थे। और वे उधमसिंह नगर और हरिद्वार को उत्तराखंड में मिलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। इन जिलों को उत्तराखंड में शामिल करने के लिए केन्द्रीय नेतृत्व से वार्ता को डा. निशंक को अधिकृत भी किया गया था। इसके लिए उन्होंने दोनो जनपदों के 10 हजार से अधिक पंचायत प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर युक्त सहमति पत्र प्राप्त कर केन्द्र सरकार को सांपे थे। और उनका यह प्रयास भी दोनो जनपदों को उत्तराखंड में मिलाने की मुख्य वजहों में एक बना था और इसके कारण ही मार्ग प्रसश्त हो पाया था। बता दें कि डा. निशंक स्वयं भी इस बात का जिक्र अपने कई इंटरव्यूज में कर चुके हैं।
अंत में यह कहना लाजमी है कि अब भी शायद ये स्थानिय बाहरी का राग आलापने वाले समझ गये होंगे कि यह समय जनता के दिल की बात कह कर अनपे निजी स्वार्थ की राजनीति करके बेकार की बहस को जन्म देने के बजाय वर्तमान स्थिति में क्षेत्र के विकास पर ध्यान देने का है। जनता का लाभ विकास से है विवाद से नहीं।
इस पहलू को इतना याद दिलाना ही काफी समझते हुये इस उम्मीद के साथ कि समझदार को इशारा काफी होता है। इस विवाद की बात समाप्त करते हैं। और इस बेकार के विषय पर तर्क कुतर्क करने वालों को यह पंक्तियां सर्मपित कि वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे एक खूबसूरत मोड़ दकर छोड़ना अच्छा। वरना बात निकलेगी तो दूर बहुत दूर तक जायेगी।